Natasha

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राजा की रानी

संध्याष के समय आज एक हिन्दुस्तानी दासी जल-पान आदि सामग्री लेकर आई तो उससे कुछ अचरज के साथ प्यारी का हाल पूछा। जवाब सुनकर मैंने और भी अचरज के साथ जाना कि प्यारी मकान में नहीं है, वह साज-सिंगार करके फिटन पर कहीं गयी है। फिटन कहाँ से आई, उसे साज-सिंगार करके कहाँ जाने की जरूरत पड़ गयी- सो कुछ भी न समझा। तब स्वयं उसी के मुँह की वह बात याद आ गयी कि वह काशी में ही एक दिन 'मरी' थी।

यह सच है कि कुछ भी समझ में न आया, फिर भी, इस खबर से सारा मन बेस्वाद हो गया।

शाम हुई, घर-घर में दीए जले, किन्तु राजलक्ष्मी नहीं लौटी।

चादर कन्धों पर डालकर जरा घूम आने के लिए बाहर निकल पड़ा। रास्ते-रास्ते चक्कर काटता, बहुत देखता-सुनता, रात के दस बजे के बाद मकान पर लौटा, तो सुना कि प्यारी तब भी लौटकर नहीं आई है। मामला क्या है? कुछ डर-सा मालूम होने लगा। सोच ही रहा था कि रतन को बुलाकर सारा संकोच दूर करके इस सम्बन्ध का पता लगाऊँ या नहीं कि एक भारी जोड़ी के घोड़ों की टापों का शब्द सुनाई दिया। खिड़की में से झाँका तो देखता हूँ एक बड़ी भारी फिटन मकान के सामने आकर खड़ी है।

प्यारी उतरकर आई। ज्योत्स्ना के आलोक में उसके सर्वांग के जेवर झलमला उठे। जो दो भले आदमी फिटन में बैठे थे वे धीमे स्वर से जान पड़ा, प्यारी को सम्बोधन कर कुछ कह रहे हैं जिसे मैं सुन न सका। वे बंगाली हैं या बिहारी, सो भी न जान सका। चाबुक खाकर घोड़े पलक मारते न मारते ऑंखों के ओझल हो गये।
♦♦ • ♦♦

राजलक्ष्मी ने मेरी खबर लेने के लिए उसी साज-jiसिंगार के साथ मेरे कमरे में प्रवेश किया।

मैं उछलकर और उसकी ओर दाहिना हाथ पसारकर थिएटरी गले से बोला, “अरी पाखण्डिनी रोहिणी1! तू गोविन्द2 लाल को नहीं पहचानती? अहा! आज यदि मेरे पास एक पिस्तौल होती, या एक तलवार ही होती!”

राजलक्ष्मी ने सूखे कण्ठ-स्वर से कहा, “तो क्या करते?- खून?”

हँसकर बोला, “नहीं प्यारी, मुझे इतना बड़ा नवाबी शौक नहीं है। इसके सिवाय इस बीसवीं शताब्दि में ऐसा निष्ठुर राक्षस धाम कौन है जो संसार की इतनी

बड़ी आनन्द की खान को पत्थर से मूँद दे? बल्कि, आर्शीवाद देता हूँ कि हे बाई-कुल-शिरोमणि! तुम दीर्घजीवी होओ- तुम्हारा सुन्दर रूप त्रिलोक विजयी हो, तुम्हारा कण्ठ-स्वर वीणा-विनिन्दित हो, तुम्हारे इन दोनों चरण कमलों नृत्य उर्वशी-तिलोत्तमा का गर्व खर्व कर दे, और मैं दूर से तुम्हारा जय-गान करके धन्य होऊँ!”

प्यारी बोली, “इन सब बातों का अर्थ?”

मैंने कहा, “अर्थमनर्थम्-! उसे जाने दो। मैं इसी एक बजे की गाड़ी से बिदा होता हूँ। अभी तो प्रयाग जाता हूँ, इसके बाद जाऊँगा बंगालियों के परमतीर्थ चाकरिस्तान- अर्थात् बर्मा को। यदि समय और सुयोग होगा, तो मिलकर जाऊँगा।”

“मैं कहाँ गयी थी, यह सुनना भी आवश्यक नहीं समझते?”

“नहीं, बिल्कुतल नहीं।”

“यह बहाना पाकर क्या तुम एकदम चले जा रहे हो?”

मैंने कहा, “इस पापी मुँह से अब भी कुछ नहीं कह सकता। इस गोरख-धन्धे से यदि पार हो सकूँ तो...”

प्यारी कुछ देर चुपचाप खड़ी रही और बोली, “तुम क्या मुझ पर जो जी चाहे वही अत्याचार कर सकते हो?”

मैं बोला, “जो जी चाहे? बिल्कुनल नहीं। बल्कि, जान-अनजान में यदि बिन्दुमात्र अत्याचार किया हो तो उसके लिए क्षमा चाहता हूँ।”

“इसके माने, आज रात को ही तुम चले जाओगे?”

“हाँ।”

“मुझे बिना अपराध दण्ड देने का तुम्हें अधिकार है?”

1-2. बंकिमबाबू के 'विषवृक्ष' नामक उपन्यास के दो पात्र।

“नहीं, तिल-भर भी नहीं। किन्तु, यदि मेरे जाने को ही तुम 'दण्ड देना' समझती हो, तो वह अधिकार मुझे जरूर है।”

प्यारी ने हठात् कोई जवाब नहीं दिया। मेरे मुँह की ओर कुछ क्षण चुपचाप देखते रहकर कहा, “मैं कहाँ गयी थी, क्यों गयी थी- नहीं सुनोगे?”

“नहीं, मेरी सम्मति लेकर तो तुम वहाँ गयी नहीं थी, जो लौट आकर उसका हाल सुनाओगी। सिवाय इसके; उसके लिए मेरे पास न समय है और न इच्छा।”

प्यारी चोट खाई हुई सर्पिणी की तरह एकाएक फुंकार उठी, “मेरी भी सुनाने की इच्छा नहीं है। मैं किसी की खरीदी हुई बाँदी नहीं हूँ जो कहाँ जाऊँ और कहाँ न जाऊँ, इसकी अनुमति लेती फिरूँ! जाते हो, जाओ!” यों कहकर रूप और अलंकारों की एक हिलोर-सी उठाकर वह तेजी के साथ कमरे से बाहर हो गयी।

आदमी गाड़ी बुलाने गया। कोई घण्टे-भर बाद सदर दरवाजे पर एक गाड़ी के खड़े होने का शब्द सुनकर बैग हाथ में लेकर जा ही रहा था कि प्यारी आकर पीछे खड़ी हो गयी। बोली, “इसे क्या तुम बच्चों का खिलवाड़ समझते हो? मुझे अकेली छोड़कर चले जाओगे, तो नौकर-चाकर क्या सोचेंगे? तुम क्या इन लोगों के सामने भी मुझे मुँह दिखाने योग्य न रक्खोगे?”

पलटकर खड़े होकर कहा, “अपने नौकरों के साथ तुम निपटती रहना- मेरा उससे कोई ताल्लुक नहीं।”

“वह न हो न सही, किन्तु लौटकर मैं बंकू को ही क्या जवाब दूँगी?”

“यही जवाब दे देना कि वे पश्चिम को घूमने चले गये हैं।”,

“इस पर क्या कोई विश्वास करेगा?

“जिस पर विश्वास किया जा सके ऐसी ही कोई बात बनाकर कह देना।”

प्यारी क्षण-भर मौन रहकर बोली, “यदि कुछ अन्याय ही कर बैठी हूँ तो क्या वह माफ नहीं हो सकता? तुम क्षमा न करोगे तो और कौन करेगा?”

“मैं बोला, “प्यारी, यह तो एक बाँदी-दासी सरीखी बात हुई। तुम्हारे मुँह से तो नहीं सोहती।”

इस ताने का प्यारी सहसा कोई उत्तर न दे सकी। उसका मुँह लाल हो गया, वह चुपचाप खड़ी रही। यह साफ मालूम हो गया कि वह प्राणपण से अपने आपको सँम्हाालने की चेष्टा कर रही है। बाहर से गाड़ीवान ने चिल्लाकर देर का कारण पूछा। मेरे चुपचाप बैग हाथ में लेते ही प्यारी धप से पैरों के समीप बैठ गयी और रुद्ध स्वर में बोल उठी, “मैं सचमुच का अपराध कभी कर ही नहीं सकती, यह जानते हुए भी यदि तुम दण्ड देना चाहते हो तो अपने हाथ से दो, किन्तु, घर-भर के लोगों के समीप मेरा सिर नीचा मत करो। यदि आज तुम इस तरह चले जाओगे तो मैं अब किसी के समीप कभी अपना मुँह ऊँचा करके खड़ी न हो सकूँगी।”

हाथ का बैग नीचे रखकर एक चौकी पर बैठ गया और बोला- “अच्छा आज तुम्हारे-हमारे बीच अन्तिम फैसला हो जाय। तुम्हारा आज का आचरण मैंने माफ कर दिया। किन्तु, मैंने बहुत विचार करके देखा है कि हम दोनों का मिलना-जुलना अब नहीं को सकेगा।”

प्यारी ने अपना अत्यन्त उत्कण्ठित मुँह मेरे मुँह की ओर उठाकर डरते हुए पूछा, “क्यों?”

मैं बोला, “अप्रिय सत्य सह सकोगी?”

प्यारी गर्दन हिलाकर अस्फुट स्वर में कहा, “हाँ, सह सकूँगी।”

किन्तु, किसी आदमी के व्यथा सहने को तैयार हो जाने से ही कुछ व्यथा देने का कार्य सहज नहीं हो जाता। मुझे बहुत देर तक चुपचाप बैठकर सोचना पड़ा। फिर भी मैंने स्थिर कर लिया कि आज किसी तरह भी अपना इरादा नहीं बदलूँगा और इसीलिए अन्त में मैंने धीरे से कहा, “लक्ष्मी, तुम्हारा आज का व्यवहार माफ करना कितना ही कठिन क्यों न हो, मैंने माफ कर दिया। किन्तु, तुम स्वयं इस लोभ को किसी तरह नहीं छोड़ सकोगी। तुम्हारे पास बहुत धन-दौलत है- बहुत-सा रूप-गुण है। बहुतों पर तुम्हारा असीम प्रभुत्व भी है। संसार में इससे बढ़कर लोभ की वस्तु और कोई नहीं है। तुम मुझे प्यार कर सकती हो, किन्तु इस मोह को किसी तरह भी नहीं काट सकोगी।”

राजलक्ष्मी ने मृदु कण्ठ से कहा, “अर्थात् इस तरह का काम मैं बीच-बीच में करूँगी ही?”

जवाब में मैं केवल मौन हो रहा। वह खुद भी कुछ देर चुप रहकर बोली, “उसके बाद?”

“उसके बाद एक दिन ताश के मकान की तरह सब गिर पड़ेगा। उस दिन की उस हीनता से तो यही भला है कि आज मुझे हमेशा के लिए रिहाई दे दो-तुम्हारे समीप मेरी यही प्रार्थना है।”

प्यारी बहुत देर तक मुँह नीचा किये चुपचाप बैठी रही। इसके बाद जब उसने मुँह उठाया तब देखा, उसकी ऑंखों से पानी गिर रहा है। उसे ऑंचल से पोंछकर पूछा, “क्या मैंने कभी तुम्हें कोई छोटा काम करने के लिए प्रवृत्त किया है?”

इस गिरती हुई अश्रु-धारा ने मेरे संयम की भीत पर चोट पहुँचाई; किन्तु, बाहर से मैंने उसे किसी तरह प्रकट नहीं होने दिया। शान्त दृढ़ता के साथ कहा, “नहीं, किसी दिन नहीं। तुम स्वयं छोटी नहीं हो। छोटा काम तुम स्वयं कभी कर नहीं सकती और दूसरों को भी नहीं करने दे सकतीं।”

फिर कुछ ठहरकर कहा, “किन्तु दुनिया तो मनसा पण्डित की पाठशाला की उस राजलक्ष्मी को पहिचानेगी नहीं। वह तो पहिचानेगी सिर्फ पटना की प्रसिद्ध प्यारी बाई को। तब दुनिया की नजरों में कितना छोटा हो जाऊँगा, सो तुम क्या नहीं देख सकती? बतलाओ, तुम उसे किस तरह रोकोगी?”

राजलक्ष्मी ने एक लम्बी साँस छोड़कर कहा, “किन्तु, उसे तो सचमुच में छोटा होना नहीं कहते?”

मैंने कहा, “भगवान की नजर में न हो, किन्तु, संसार की ऑंखें भी तो उपेक्षा करने की चीज नहीं है लक्ष्मी।”

राजलक्ष्मी ने कहा, “किन्तु, उन्हीं की नजर को ही तो सबसे पहले मानना उचित है।”

मैंने कहा, एक तरह से यह बात सच है। किन्तु, उनकी नजर तो हमेशा दीख नहीं पड़ती और फिर जो दृष्टि संसार में दस आदमियों के भीतर से प्रकाश पाती है, वह भी भगवान की ही दृष्टि है राजलक्ष्मी, इसे भी अस्वीकार करना अन्याय है।”

“इसी डर से तुम मुझे जन्म-भर के लिए छोड़कर चले जाओगे?”

मैं बोला, “फिर मिलूँगा। तुम कहीं भी क्यों न होओ, बर्मा जाने के पहले मैं एक दफे और भी तुमसे मिल जाऊँगा।”

राजलक्ष्मी तेजी के साथ सिर हिलाकर रूँआसे स्वर से कह उठी, “जाते हो तो जाओ। किन्तु तुम मुझे चाहे जैसा क्यों न समझो, मुझसे बढ़कर अपना तुम्हारा और कोई नहीं। पर उसी से मुझको त्याग कर जाना दस आदमियों की निगाह में धर्म है, यह बात मैं कभी स्वीकार नहीं करूँगी।” इतना कहकर वह तेजी से कमरा छोड़कर चली गयी।

घड़ी निकालकर देखा, अब भी समय है, अब भी शायद एक बजे की गाड़ी मिल जाय। चुपचाप बैग उठाकर धीरे से उतरकर मैं गाड़ी में जा बैठा।

इनाम के लोभ से गाड़ीवान ने प्राणपण से दौड़कर स्टेशन पहुँचा दिय। किन्तु उसी क्षण पश्चिम की ट्रेन ने प्लेटफार्म छोड़ दिया। पूछने से मालूम हुआ कि आधा घण्टे बाद ही एक ट्रेन कलकत्ते की ओर जायेगी। सोचा, चलो, यही अच्छा है; गाँव का मुँह बहुत दिन से नहीं देखा- उस जंगल में ही जाकर बाकी के कुछ दिन काट दूँ।

इसलिए, पश्चिम के बदले पूर्व का टिकट खरीद कर आधा घण्टे के बाद एक विपरीत-गामिनी भाफ की गाड़ी में बैठकर काशी से चल दिया।
♦♦ • ♦♦

बहुत दिनों बाद फिर एक दिन शाम को गाँव में आकर प्रवेश किया। मेरा मकान उस समय सगे-सम्बन्धी रिश्तेदारों तथा उनके भी रिश्तेदारों से भरा हुआ था। बड़े मजे से सारे घर को घेरकर उन्होंने अपनी घर-गिरस्ती फैला रक्खी थी, कहीं सुई रखने के लिए भी जगह नहीं थी।

मेरे एकाएक आ पहुँचने और वहाँ रहने के इरादे को सुनकर आनन्द के मारे उनका चेहरा स्याह हो गया। वे कहने लगे, “आहा, यह तो बड़े आनन्द की बात है। इस बार ब्याह करके संसारी बन जाओ श्रीकान्त, हम लोग देखकर अपनी ऑंखें ठण्डी करें।”

मैंने कहा, “इसीलिए तो आया हूँ। इस समय कम से कम मेरी माँ का कमरा खाली कर दो, मैं अपने हाथ-पाँव फैलाकर जरा लेट रहूँ।”

मेरे पिता की ममेरी बहिन अपने पति-पुत्र के साथ कुछ दिन से रह रही थी। वे आकर बोलीं, “ठीक तो कहते हो!”

मैंने कहा, “अच्छा, न हो तो मैं बाहर के कमरे में पड़ रहूँगा।”

जाकर देखा, कोने में सुर्खी, और एक कोने में चूने का ढेर लगा हुआ है। उसके भी 'मालिक' बोले, “ठीक तो है। देखता हूँ कि वे सब चीजें तो जरा देख-सुनकर हटानी पड़ेंगी। पर कमरा तो छोटा नहीं है, तब तक न हो तो इस किनारे एक तख्त-पोश बिछाकर- क्या कहते हो श्रीकान्त?”

मैंने कहा, “अच्छा रात-भर के लिए न हो तो यही सही।”

वास्तव में मैं इतना थक गया था कि मालूम होता था जहाँ भी हो जरा-सी सोने को जगह भर मिल जाय तो जान में जान आ जाय। बर्मा की उस बीमारी के बाद से अब तक शरीर पूरी तौर से स्वस्थ और सबल न हो पाया था। भीतर ही भीतर एक तरह का अवसाद प्राय: भी अनुभव होता था। इसी से शाम के बाद जब माथा दुखने लगा तब विशेष अचरज नहीं हुआ।

नयी बनी हुई बहिन ने आकर कहा- “अरे यह तो जरा गर्मी-सी चढ़ गयी है भात खाकर सोने से ही चली जायेगी।”

तथास्तु। वही हुआ। गुरुजन की आज्ञा शिरोधार्य करके गर्मी दूर करने के लिए भात खाकर शय्या ग्रहण कर ली। पर सुबह नींद टूटी खूब अच्छी तरह बुखार लिये हुए!

दीदी ने शरीर पर हाथ रखकर कहा, “कुछ नहीं, यह तो मलेरिया है, इसमें भोजन किया जाता है।”

किन्तु अब हाँ में हाँ न मिला सका। बोला, “नहीं जीजी, मैं अब तक तुम्हारे मलेरिया-राज की प्रजा नहीं बना हूँ। उनकी दुहाई देकर अत्याचार किया जाना शायद मैं सहन नहीं कर सकूँ। आज मेरी लंघन है।”

सारी रात गुजरी, दूसरा दिन गुजरा, उसके बाद का दिन भी कट गया, किन्तु बुखार ने पीछा नहीं छोड़ा। बल्कि, उसे अधिकाधिक चढ़ते देख मन ही मन व्याकुल हो उठा। गोविन्द डॉक्टर इस बेला उस बेला देखने आने लगे। नाड़ी, पकड़कर, जीभ देखकर, पेट ठोककर 'सुस्वादु' ओषधियों की योजना कर केवल 'लागत के दाम' भर लेने लगे, किन्तु एक-एक दिन करके सारा सप्ताह इसी तरह गुजर गया। मेरे पिता के मामा, मेरे बाबा आकर बोले, “इसीलिए तो भइया, मैं कहता हूँ कि वहाँ खबर पठा दो, तुम्हारी फुआ को आ जाने दो। बुखार तो जैसे...”

बात पूरी न होने पर भी मैं समझ गया कि बाबा कुछ मुश्किल में पड़ गये हैं। इस तरह और भी चार-पाँच दिन बीत गये, किन्तु, बुखार में कोई फर्क नहीं हुआ। उस दिन सुबह गोविन्द डॉक्टर ने आकर यथारीति दवाई देकर तीन दिन के बाकी 'लागत के दाम' माँगे। शय्या में पड़े-पड़े किसी तरह हाथ बढ़ाकर अपना बैग खोला- देखा तो मनी-बैग गायब है! अतिशय शंकित होकर मैं उठ बैठा। बैग को औंधा करके हर एक चीज अलग-अलग करके खोज की; किन्तु जो नहीं था सो नहीं मिला।

गोविन्द डॉक्टर मामला समझकर चिन्तित होकर बार-बार सवाल करने लगे, “कुछ चला गया है क्या?”

मैंने कहा, “नहीं, कुछ भी तो नहीं गया।”

किन्तु उनकी दवा का मूल्य जब मैं न दे सका तब वे समझ गये। स्तम्भित की तरह कुछ देर खड़े रहकर उन्होंने पूछा, “थे कितने?”

“कुछ थोड़े-से।”

“चाबी को जरा सावधानी से रखना चाहिए भइया। खैर, तुम पराए नहीं हो, रुपये की चिन्ता मत करना। अच्छे हो जाओ, उसके बाद जब सुभीता हो भेज देना। इलाज में कोई कसर न होगी।” इतना कहकर डॉक्टर साहब गैर होकर भी परम आत्मीय से भी अधिक सान्त्वना देकर चले गये। उनसे कह दिया कि “यह बात कोई सुन न पावे।”

डॉक्टर साहब बोले, “अच्छा, अच्छा, देखा जायेगा।”

देहात में विश्वास पर रुपये उधर देने की चाल नहीं है। रुपया ही क्यों, एक चवन्नी भी खाली हाथ उधार माँगने पर लोग समझते हैं कि यह आदमी खालिस दिल्लगी कर रहा है। क्योंकि, इस बात की देहात के लोग कल्पना भी नहीं कर सकते हैं कि संसार में इतना नासमझ भी कोई है जो खाली हाथ उधार चाहता है, अतएव, मैंने यह कोशिश भी नहीं की। पहले से ही स्थिर कर लिया था कि इसकी सूचना राजलक्ष्मी को नहीं दूँगा। जरा स्वस्थ हो जाऊँ तब जो हो सकेगा करूँगा। मन में सम्भवत: यह संकल्प था कि अभया को पत्र लिखकर रुपये मँगाऊँगा। किन्तु, इसके लिए समय नहीं मिला। सहसा सेवा-शुश्रूषा का सुर भी 'तारा' से 'उदारा' में उतर पड़ते ही समझ गया कि मेरी विपत्ति की बात मकान के भीतर छिपी नहीं रही है।

परिस्थिति को संक्षेप में जताकर राजलक्ष्मी को एक चिट्ठी लिखी अवश्य, किन्तु उसमें मैं अपने आपको इतना हीन, अपमानित, महसूस करने लगा कि किसी तरह भी उसे न भेज सका- फाड़कर फेंक दिया। दूसरा दिन इसी तरह कट गया। किन्तु, इसके बाद के दिन ने किसी तरह भी कटना न चाहा। उस दिन किसी ओर से कोई रास्ता न देख पाकर अन्त में एक तरह से जान पर खेलकर ही कुछ रुपयों के लिए राजलक्ष्मी को पत्र लिखकर पटना और कलकत्ते के ठिकाने पर भेज दिए।

वह रुपये भेजेगी, इसमें जरा भी सन्देह नहीं था, फिर भी, उस दिन सुबह से ही मानो एक प्रकार के उत्कण्ठित संशय से पोस्टमैन की आशा में सामने की खुली खिड़की में से रास्ते के ऊपर अपनी दृष्टि बिछाए हुए उन्मुख पड़ा रहा।

समय निकल गया। आज अब उसकी आशा नहीं है। ऐसा सोचकर करवट बदलने की तैयारी कर रहा था कि उस समय दूर पर एक गाड़ी के शब्द से चकित होकर तकिये पर भार देकर उठ बैठा। गाड़ी आकर ठीक सामने ही खड़ी हो गयी। देखता हूँ, कोचवान के बगल में रतन बैठा है। उसके नीचे उतरकर गाड़ी का दरवाजा खोलते ही जो दिखाई दिया उस पर सत्य मानकर विश्वास करना कठिन हो गया।

प्रकट रूप से दिन के समय इस गाँव के रास्ते पर राजलक्ष्मी आकर खड़ी हो सकती है, यह मेरी कल्पना के भी परे की बात थी।

रतन बोला- “ये हैं बाबूजी।”

राजलक्ष्मी ने केवल एक बार मेरे मुँह की ओर देखा। गाड़ीवान बोला- “माँ, देर लगेगी? घोड़ा खोल दूँ?”

“जरा ठहरो।” कहकर उसने अविचिलित धीर पद रखते हुए मेरे कमरे में प्रवेश किया। प्रणाम करके, पैरों की धूलि मस्तक पर लगाकर और हाथ से मस्तक और छाती का उत्ताप देखकर कहा, “इस समय तो अब बुखार नहीं है। उस जून सात बजे की गाड़ी से जाना हो सकेगा? घोड़े छोड़ देने को कह दूँ?”

मैं अभिभूत की तरह उसके मुँह की ओर निहार रहा था। बोला, “दो दिन से बुखार आना तो बन्द है, क्या मुझे आज ही ले चलना चाहती हो?”

राजलक्ष्मी बोली, “न हो तो आज रहने दो। रात में चलने की जरूरत नहीं, सर्दी लग सकती है, कल सुबह ही चलेंगे।”

इतनी देर में जैसे मैं होश में आ गया। बोला, “इस गाँव में इस मुहल्ले के बीच तुम आई किस साहस से? तुम क्या सोचती हो कि यहाँ तुम्हें कोई भी न पहिचान सकेगा?”

राजलक्ष्मी ने सहज में ही कहा, “भले ही पहिचान लें। यहीं तो पैदा हुई और बड़ी हुई और यहीं पर लोग मुझे पहिचान न सकेंगे? जो देखेगा वही पहिचान लेगा।”

“तब?”

“क्या करूँ बताओ? मेरा भाग्य! नहीं तो तुम यहाँ आकर बीमार ही क्यों पड़ते?”

“आई क्यों? रुपये मँगाए थे, रुपये भेज देने से ही तो चल जाता!”

“सो क्या कभी हो सकता है? ऐसी बीमारी की खबर सुनकर क्या केवल रुपये भेजकर ही स्थिर

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